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रवी बघेल भद्रावती
भद्रावती शहर में जब से नगर पालिका की स्थापना हुई है, तब से बालासाहेब ठाकरे की शिवसेना का एकछत्र वर्चस्व निर्विवाद रूप से कायम रहा। न भाजपा कभी सरकार बनाने की स्थिति में दिखी और न ही कांग्रेस को नगर राजनीति में निर्णायक भूमिका मिल सकी। स्थानीय मुद्दों पर मजबूत पकड़ और शहर के कोर वोट बैंक ने शिवसेना को हमेशा सत्ता की कुर्सी तक पहुंचाया। परंतु इस बार हालात पूरी तरह बदल चुके हैं।
शिवसेना के दो धड़ों में बंटने के बाद भद्रावती की राजनीति नई दिशा में बढ़ रही है। उद्धव ठाकरे गुट और मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे गुट दोनों ही अपने पुराने वोटरों को साधने में जुटे हैं। शहर में परंपरागत रूप से शिवसेना को समर्थन करने वाले मतदाताओं के समक्ष अब यह सवाल खड़ा है कि वे किसे असली शिवसेना मानें। शिवसेना की यह फूट भाजपा और कांग्रेस के लिए अवसर भी बन सकती है।
कांग्रेस की बात करें तो पार्टी का स्थानीय संगठन काफी कमजोर होता प्रतीत हो रहा है। कई वरिष्ठ नेता दूसरी पार्टियों का दामन थाम चुके हैं। पार्टी वोटरों को वापस जोड़ने के लिए संघर्ष कर रही है। कांग्रेस की सबसे बड़ी चुनौती शहर में अपनी खोती साख को बचाने की है।
भाजपा ने पिछले कुछ वर्षों में भद्रावती में तेजी से संगठन विस्तार किया है। पूर्व नगराध्यक्ष और कई नगरसेवकों के भाजपा में शामिल होने से पार्टी की ताकत बढ़ी है। हालांकि टिकट की दावेदारी को लेकर आपसी खींचतान पार्टी के अंदर असंतोष को जन्म देती दिख रही है। भाजपा के लिए सबसे बड़ा सवाल यह है कि आंतरिक विवादों के बीच वह क्या एकजुटता के साथ चुनाव लड़ेगी।
ऐसे में शिंदे गुट खुद को “नई शिवसेना” के रूप में मजबूत विकल्प बताने की कोशिश कर रहा है, जबकि ठाकरे गुट अपने पारंपरिक समर्थकों के भरोसे मैदान में उतरने की रणनीति बना चुका है।
इस बार के चुनाव में किसी एक दल की स्पष्ट जीत की संभावना कम दिख रही है। स्थिति यह संकेत दे रही है कि खिचड़ी सरकार, गठबंधन या समझौते की राजनीति को रास्ता मिल सकता है।
भद्रावती की जनता इस बार किसे मौका देती है, यह चुनाव परिणाम ही बताएंगे। फिलहाल शहर की राजनीति में उत्सुकता, अनिश्चितता और नए समीकरणों का दौर शुरू हो चुका है।
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